मुकद्दमे की जांच व ट्रायल के दौरान जेल में कैद आरोपी व आपराधिक न्यायशास्त्र
             याद है न, बीते 2 अप्रैल 2018 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ देश भर में जोरदार प्रदर्शन हुए थे, जिसकी देश भर के विपक्षी दलों व मानव अधिकारवादियों, सामाजिक न्याय के पक्षधर वकीलों व अन्य नागरिकों ने खुल कर आलोचना की व सवाल उठाये थे | अध्यादेश लाकर उस आदेश को निरस्त करने के लिए सरकार पर दवाब भी बनाया गया | जिसके चलते इस फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए केंद्र सरकार संसद में कानून बनाने के लिए बिल ले आई | यह फैसला देने वाले न्यायाधीश को रिटायर्मेंट के बाद जब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष बनाया गया तो विरोध भी किया गया |
20 मार्च 2018 को दिए गये सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले अनुसूचित जातियों व जन जातियों के प्रति अत्याचार को रोकने वाले कानून को बहुत कमजोर कर दिया गया था | इस फैसले में कहा गया कि उक्त कानून के तहत शिकायत आने पर आरोपी की गिरफ्तारी से पहले सावधानी बरती जाएगी व डी.एस. पी. द्वारा प्राइमरी जाँच के बाद भी एस.पी. द्वारा कारण बताते हुए दी गई मंजूरी के बाद ही गिरफ्तारी हो सकती है | नजरबंदी को जारी रखने के लिए मजिस्ट्रेट को इन कारणों की समीक्षा करनी होगी |
             मगर यह शायद याद न हो कि किस केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था ! तब यहाँ स्पष्ट कर दें कि सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला Dr. Subhash Kashinath Mahajan vs. State of Maharashtra and Anr. में दिया था | मगर Dr. Subhash Kashinath Mahajan vs. State of Maharashtra and Anr. केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले व उस पर हुई प्रतिक्रिया का जिक्र यहाँ क्यों हो रहा है, यह सवाल तो आपके मन को असहज कर ही रहा होगा ! तो जानिए कि आज यह बात क्यों प्रासंगिक है ?
             जिक्र इसलिए किया है कि भीमा कोरेगांव केस में पुणे पुलिस द्वारा 5 लोगों की गिरफ्तारियां जून में हुई तो 5 गिरफ्तारियां अभी 28 अगस्त को भी हुई है | अब गिरफ्तार हुए लोगों में वकील, मानवाधिकार कार्यकर्ता, कवि, पत्रकार जैसे प्रतिष्ठित ओहदों पर काम करने वाले शामिल थे | दिल्ली व फरीदाबाद से हिरासत में लिए गये दो व्यक्तियों को पुणे ले जाने के प्रयास दिल्ली व पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट के दखल के बाद रुक गए | उसके बाद देश के जाने माने कुछ बुद्धिजीवियों, एकेडेमिक्स के लोगों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर भीमा कोरेगांव केस में गिरफ्तारियों पर जाँच पूरी होने तक रोक लगाने की गुहार लगाई |
       इस याचिका में लिखा गया कि क्योंकि गिरफ्तार किये गए सभी आरोपी बहुत ही सम्मानित व समाज में गहरी जड़ों वाले व बहुत ही अच्छी पहचान वाले व्यक्ति हैं और उन्हें हिरासत में रहने की कतई कोई जरूरत नहीं है | Dr. Subhash Kashinath Mahajan vs. State of Maharashtra and Anr. (2018) 6 SCC 454 
(https://www.sci.gov.in/supremecourt/2017/22086/22086_2017_Judgement_20-Mar-2018.pdf) में दिए गए फैसले अनुसार यह स्थापित कानून है कि गिरफ्तारी अंतिम उपाय है व इसका आश्रय अंत में लिया जाना चाहिए |  गिरफ्तारी के अधिकार को किसी व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले व्यक्तिगत आजादी व प्रतिष्ठा के अधिकार को मनमाने तरीके से नकारने के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए |
       तब प्रश्न यह है कि उक्त फैसले को कैसे देखा जाये ?
       उक्त फैसले की आलोचना व उस पर उठे सवाल अपनी जगह है मगर गिरफ्तारी को लेकर पुलिस कि अंधी ताकत को नियमित व् नियंत्रित करने की राह उक्त फैसले ने दिखाई तो है | मगर उक्त फैसला सिर्फ एस.सी. व एस.टी. प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज एक्ट के मामलों में जाँच व गिरफ्तारी करने के पुलिस के अधिकार सीमित कर उस कानून को दंतविहीन कर दिया गया था | जबकि होना यह चाहिए था कि एस.सी. व एस.टी. प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज एक्ट जैसे विशेष कानून के प्रावधानों की मंशा को समझते हुए उक्त फैसला इस कानून के सन्दर्भ में नहीं होना था | बल्कि गिरफ्तार करने के पुलिस के असीमित अधिकारों व मैजिस्ट्रेट द्वारा गिरफ्तारी की न्यायिक समीक्षा करने की बजाय रुटीन में ही निपटान कर देने को नियमित व नियंत्रित करने की जरूरत को समझना था |
       अब उम्मीद कर सकते हैं कि रोमिला थापर व अन्य बनाम केंद्र सरकार व अन्य याचिका में सुप्रीम कोर्ट पुलिस द्वारा फौजदारी मामलों में जांच के दौरान गिरफ्तारी, रिमांड व जमानत के विषयों पर अब तक के फैसलों को स्पष्ट करते हुए साफ़-साफ़ निर्देश जारी करेगा ताकि मानवाधिकारों का हनन रुक सके, कोई निर्दोष फंसाया न जाए व जाँच में ठोस गवाही होने व आरोपी के भाग जाने, गवाही से छेड़छाड़ करने की ठोस सम्भावना के बाद ही गिरफ्तारी किया जाना सुनिश्चित किया जा सके | पीड़ित के प्रति हुए अन्याय का संज्ञान तो लिया ही जाए मगर जाँच व ट्रायल से पहले ही आरोपी को जेल में बंद करवा कर सजा दिलवाने की इच्छा पूर्ति करना आपराधिक न्यायशास्त्र के विपरीत कदम हो सकता है |
राजीव गोदारा (एडवोकेट)
वाईस प्रेजिडेंट (स्वराज इंडिया)
मोबाइल : 9417150798
 


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