धार्मिक यात्रा के समय सडक पर आतंक का साया क्यों ? : राजीव गोदारा
शायद वह दौर तो कभी नहीं आया होगा जब यह कहा जाने लगे कि अमुक धार्मिक यात्रा में शामिल लोगों पर कानून व्यवस्था कैसे लागू की जा सकती है ! यह भी तब प्रचारित किया जा रहा हो जब भारी संख्या में धार्मिक या सांस्कृतिक यात्रा में वे लोग भी शामिल हो रहे हों जिन्हें धार्मिक या सांस्कृतिक भाव छु भी नहीं गया हो | साथ ही सत्ता को संचालित कर रही ताकतें खुल्लम खुला न सिर्फ कहें कि किसी विशेष यात्रा के लिए विशेष तौर पर सुरक्षा प्रबंध किये जायेगें बल्कि यह भी कहें कि इस यात्रा को सुगम बनाने के लिए शेष हर किसी को दुश्वारियों का सामना करना पडेगा तब भी इस यात्रा को बिलकुल भी नियंत्रित नहीं किया जायेगा बल्कि सार्वजनिक जीवन में सड़कें, गलियां सब पर उन यात्रियों (जिनमें भारी मात्रा में वे भी हैं जिनका धर्म से नहीं बल्कि हुल्लड़ बाजी व अराजकता में विश्वास है) का साम्राज्य होगा |
यदि ऐसा दौर आपने अब तक नहीं देखा तो अब "कांवड़" यात्रा के नाम पर सड़क पर निकले युवाओं की अधिकतर टोलियों के बर्ताव में देखा जा सकता है | सरकार द्वारा कानून व्यवस्था के दायरों से बहार जाने के लिए दी गई खुली छूट लूम्पन ताकतों को सार्वजानिक जीवन में अपना साम्राज्य स्थापित कर विदूषक होने के लिए प्रेरित करता है| जो धार्मिक व सांस्कृतिक भाव से यात्रा पर निकला है उसे भी यह छूट भटकाएगी | जबकि उस बड़े वर्ग के लिए जो धार्मिक या सांस्कृतिक भाव से नहीं बल्कि जीवन जी लेने के भाव को लेकर यात्रा में सहमिल है उसे हिंसक बना देती है | यह कोरी काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि हर रोज घट रहीं सच्ची घटनाओं पर आधारित विवरण है |
वर्तामान में कांवड़ यात्रा में शामिल होने वाले यात्रियों के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है | वे समूह के तौर पर स्वयं को सर्वोपरि मान कर सड़क पर विचरते हैं | क़ानून व्यवस्था उन समहों के सामने कोई मायने नहीं रखती है | कांवड़ियों के हाथों अंजाम दी जा रही हिंसक घटनाओं के साथ ही सड़क पर कांवड़ियों का आतंकित व्यवहार के साथ विचरना न सिर्फ आस्था के साथ कांवड़ यात्रा पर जाने वालों कि छवि को नकारात्मक रूप में पेश करती है |
यूं तो हम उस दौर में हैं जहाँ किसी भी धार्मिक, जातीय व कार्यक्षेत्र की पहचान के सहारे हिंसक होने का प्रचलन बड़ा है || वहीँ समूहों व व्यक्तियों द्वारा खुद को किसी भी तरह से रक्षक की पहचान में पेश कर हिंसक होने की घटनाएं बड़ी है | वह चाहे गौ रक्षक की पहचान हो, चाहे धार्मिक यात्री की ( कांवड़ यात्रा का विशेष जिक्र बनता है) या फिर तीरंगा हाथ में उठा आकर खुद की बड़ा देश प्रेमी वाली पहचान का बदस्तूर सिलसिला चलना हो |

इस सवाल का जवाब साफ़ है मगर उसे व्यक्त करना उतना आसान नहीं माना जा रहा | बेहिचक कहना होगा कि कोई भी धार्मिक/गतिविधि संविधान की मूल भावना व परिधि से बाहर नहीं हो सकती | किसी भी धार्मिक, सांस्कृतिक या राष्ट्रीयता की गतिविधि को संविधान से उपर जगह नहीं दी जा सकता | किसी भी धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रिय, स्थानीय गतिविधि या समूह को यह छूट नहीं दी जा सकती कि वह देश में लागू कानून व संविधान के दायरों को तोड़ कर किसी के प्रति भी बलपूर्वक आचरण करे | न ही सार्वजनिक जीवन में दखल देने की छूट दी जा सकती |
कांवड़ यात्रा हो या कोई अन्य सामजिक गतिविधि, इन सब के दौरान कानून व्यवस्था की पालना न हो पाने या न किये जाने की बन रही नीति को खंडित किया जाना होगा | इन धार्मिक यात्रा में शामिल होने वालों की सामाजिक, आर्थिक व् राजनीतिक हालत को समझना होगा उसके बाद ही इन समस्याओं का हल सम्भव होगा | अभाव व असुरक्षा का जीवन जीने को अभिशप्त समाज के बीच डर व अभाव से मुक्ति का अभियान चलाना होगा | तभी शायद हम हिंसक हो रहे समूहों के बीच सद्भाव व प्रेम का भाव जगा सकते हैं | सुरक्षा/डर या अभाव से मुक्ति प्रदान करने के अभियान के साथ साथ समाज को जीने के हक़ की गारंटी देनी होगी |
Hamkalam
जवाब देंहटाएंराजीव जी, एक उम्दा लेख के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएं